महिलाएं जमीनी स्तर पर सशक्त होंगी तभी समाज में समग्र परिवर्तन होगा: डॉ. सुनीता

महिलाएं जमीनी स्तर पर सशक्त होंगी तभी समाज में समग्र परिवर्तन होगा: डॉ. सुनीता


स्त्री विमर्श और साहित्य विषयक संगोष्ठी एवं कहानी पाठ

जयपुर

यहां परिष्कार कॉलेज आफ ग्लोबल एक्सीलेंस और प्रगतिशील लेखक संघ के संयुक्त तत्वावधान में शनिवार को ‘’स्त्री विमर्श और साहित्य ‘’ विषय पर राज्य स्तरीय संगोष्ठी एवं कहानी पाठ का आयोजन किया गया।

संगोष्ठी में मुख्य अतिथि प्रतिष्ठित लेखिका  और प्रखर आलोचक डॉ. सुनीता ने  कहा कि स्त्री सशक्तिकरण के लिए चेतना और व्यवहार के स्तर पर विचार की जरूरत है। स्त्रियों को लेकर जब तक परिवार और समाज में चेतना नहीं आएगी तब तक स्त्री सशक्तिकरण संभव नहीं होगा।डॉ सुनीता ने कहा  कि सशक्तिकरण का पहला कदम शिक्षा है। इसी से सर्वांगीण विकास होता है। आज की लड़कियाँ हर क्षेत्र काम कर रही है। उन्हें मनुष्यत्ता के पक्ष में निर्णय के लिए जितना आवश्यक है उतना ही झुकना चाहिए।  

उन्होने कहा  कि स्त्री सशक्तीकरण के लिए ज़रूरी है कि हम “पिंक फेमिनिज्म” से ऊपर उठकर “ग्रासरूट फेमिनिज्म” को अपनाएं। हमें केवल ग्लैमर और प्रतीकात्मकता से आगे बढ़कर वास्तविक समस्याओं को हल करने पर ध्यान देना होगा। जब महिलाएं जमीनी स्तर पर सशक्त होंगी, तभी समाज में समग्र रूप से परिवर्तन होगा। स्त्री सशक्तीकरण का असली अर्थ तभी पूरा होता है जब महिला खुद अपनी आवाज़ को पहचानें।  स्त्री का सशक्त होना उसके आत्मबल, स्वाभिमान और संघर्ष से जुड़ा हुआ है और यही उसकी असली शक्ति है। स्त्री की संवेदनशीलता पुरुषों से कहीं ज़्यादा है । डॉ सुनीता ने कहा कि अक्का महादेवी और राजस्थान की मीराबाई ने प्रतिरोध का रास्ता चुना । उन्होंने झांसी की रानी को भी उन्होंने याद किया और कहा कि  स्त्री अभी भी मझधार में है।

डॉ सुनीता ने महाभारत कालीन विदुषी महिलाओं का जिक्र करते हुए कहा कि आज जो रचा जा रहा है वह कल प्रभावित करेगा। गांधी जी ने स्वाधीनता आंदोलन की सफलता के लिए स्त्रियों को साथ लिया।महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान ने स्त्री शिक्षा पर जोर दिया । महादेवी वर्मा ने गद्य, रेखाचित्र, कविता और संस्मरण विधाओं में काम किया लेकिन उन्हें केवल कवयित्री तक सीमित कर दिया गया। चाँद और मर्यादा के विशेषांकों के 1914 में स्त्री विशेषांक निकले। कमला नेहरू ने मर्यादा विशेषांक का सम्पादन किया।
डॉ सुनीता ने कहा कि पुरुषों ने भी स्त्री के प्रतिरोध को बुलंद किया है। ऐसा नहीं है कि स्त्री की संवेदना को स्त्री ही समझ  सकती है। पुरुष भी स्त्री के मन और उसकी संवेदना को समझ सकता है लिख सकता है। हिंदी में आज महिलाएं पुरुषों के मुकाबले अधिक उपन्यास लिख रही हैं। महिला लेखिकाओं ने अपने ऊपर लगने वाले आरोपों का जवाब अपने लेखन से दिया है। आज वे चित्रकला, फिल्म  पटकथा लेखन और फिल्म निर्देशन में काम कर रही हैं। आज मीडिया में भी महिलाएं बहुत तेजी से आगे बढ़ रही हैं। कॉर्पोरेट क्षेत्र और अखिल भारतीय सेवाओं में महिलाओं की बराबरी सुनिश्चित नहीं हुई है।उन्हें व्यवहार और आर्थिक स्तर पर समर्थ बनाने की जरूरत है।  

वरिष्ठ साहित्यकार नंद भारद्वाज ने कहा कि भारतीय साहित्य संस्कृति के इतिहास में स्त्री को अस्मिता के लिए लगातार संघर्ष करना पड़ा है।  समूचा मानव समाज मां की सत्ता का रहा है ।स्त्री की भूमिका निर्णायक रही है । वैदिक काल में महिला का महिमा  मंडन  ज्यादा हुआ है  जबकि व्यवहार में वैसा है नहीं है । दास प्रथा,  राजतंत्र और सामंती युग तक आते-आते स्त्री पर वर्जनाएं बढ़ने लगी । जल जंगल और जमीन की भांति जोरू  को भी  वस्तु मान लिया गया। स्त्री को सशक्त बनाने की कोशिश नहीं की गई। फ्रांस की राज्य क्रांति के बाद स्त्री को अधिकार मिले और स्त्री संगठित होने लगी। आजादी और शक्ति स्त्री के अपने भीतर है जिसे पहचानने की जरूरत है। मिलकर लड़ेंगी तो ताकत मिलेगी । आधुनिक काल में यह समझ विकसित हुई है। भारतीय साहित्य में  उपन्यास और कहानी में महिलाओं ने बहुत काम किया है, आलोचना में स्त्रियां कम है लेकिन जितनी भी हैं वे सशक्त हैं । उन्हे शक्ति को स्वयं पहचान कर बराबरी के स्तर पर आना होगा । यह प्रक्रिया जितनी तेज होगी मुक्ति और सशक्तिकरण भी उतना अधिक संभव हो सकेगा।
सुपरिचित  साहित्यकार  एवं शिक्षाविद डॉ. राघव प्रकाश ने कहा कि स्त्री पुरुष से कई अर्थों में बेहतर है । स्त्री में  पुरुष से अधिक  संवेदनाएं और अहसास है ।  मनुष्य के ज्ञानात्मक विकास और तकनीकी इमोशनल डेवलपमेंट से संस्कृति पैदा होती है  । उन्होंने कहा  2000 साल के युद्धों का इतिहास  देखें तो बारूद का इस्तेमाल सकारात्मक कार्यों में करने की बजाय बंदूक बनाने में किया गया ।  पुरुष स्वार्थ  और स्त्री सेवाभावी की प्रतीक है।गांधी जी ने हिंद स्वराज में मशीनीकरण के दुष्प्रभावों से पहले ही आगाह कर दिया था। शिक्षा के कारण लड़कियां पढ़ने लगी और 80% गोल्ड मेडल आज लड़कियों के पास हैं।हाल ही 65% लड़कियां जज बनी है।संसद में 30% आरक्षण देने का अधिकार लगातार स्थगित किया जा रहा है। पुरुष स्त्री के खिलाफ है। औरतें अब जाग गई है आज औरतों की सामने बड़ा सपना है। औरत को नई दुनिया बनाने की जरूरत है ।  

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. हेतु भारद्वाज ने अपने समाहार वक्तव्य में कहा कि अतीत को छोड़ कर वर्तमान के स्त्री सशक्तीकरण की बात करनी चाहिए। स्त्री सशक्तीकरण के जीवन के निकट में जा कर साहित्य लिखना चाहिए। कथाकार एवं प्रलेस की महासचिव श्रीमती रजनी मोरवाल ने स्त्री सशक्तीकरण की कहानी पर टिप्पणी करते हुए कहा कि आज हमारे समाज की मांग है कि स्त्रियाँ अपने हक में फैसले लेने हेतु सशक्त बने और खुद अपने फैसले लें।

प्रलेस के कार्यकारी अध्यक्ष और वरिष्ठ व्यंग्यकार फारूक आफरीदी ने कहा कि जब समाज स्त्री के अधिकारों के प्रति जागरूक होगा तभी उसे समानता का अधिकार मिलेगा। ऐसी वैचारिक गोष्ठियों से वातावरण निर्मित होगा और जनचेतना बढ़ेगी। प्रलेस के प्रदेश अध्यक्ष गोविंद माथुर ने कहा कि ऐसी वैचारिक प्रयास निरंतर होते रहने चाहिए । संगोष्ठी डॉ नीलम कुलश्रेष्ठ ने भी अपने अनुभव साझा किए।
वरिष्ठ आलोचक राजाराम भादू ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि स्त्री सशक्तीकरण की वैचारिकी एवं सृजन की प्रवृत्ति भिन्न भिन्न होती है जिसका साहित्यकारों को ध्यान रखना चाहिए। स्त्री सशक्तीकरण में बदलाव आत्मछवि से आता है और आत्मछवि चेतना से बनती है।
संगोष्ठी का दूसरा सत्र स्त्री सशक्तिकरण पर केन्द्रित कहानी पाठ का रहा। इसमें कथाकार डॉ. माधव राठौड़ ने सपनों में अटकी याद, डॉ. तराना परवीन ने संरक्षण और वंदना गुप्ता ने बेबसी जैसी स्त्रीविमर्श की कहानियों का पाठ किया। डॉ. श्रद्धा आढ़ा,रजनी मोरवाल, सुंदरम शांडिल्य ने उनकी समीक्षा की।